Friday, February 15, 2019



            
                                                               ''बूढ़ी काकी''

लेखक- प्रेमचंद

 


                               जिह्वा-स्वाद के सिवा और कोई चेष्टा शेष न थी और न अपने कष्टों की ओर आकर्षित करने का, रोने के अतिरिक्त कोई दूसरा सहारा ही। समस्त इन्द्रियाँ, नेत्र, हाथ और पैर जवाब दे चुके थे। पृथ्वी पर पड़ी रहतीं और घर वाले कोई बात उनकी इच्छा के प्रतिकूल करते, भोजन का समय टल जाता या उसका परिमाण पूर्ण न होता अथवा बाज़ार से कोई वस्तु आती और न मिलती तो ये रोने लगती थीं। उनका रोना-सिसकना साधारण रोना न था, वे गला फाड़-फाड़कर रोती थीं। 
                            
                              उनके पतिदेव को स्वर्ग सिधारे कालांतर हो चुका था। बेटे तरुण हो-होकर चल बसे थे। अब एक भतीजे के अलावा और कोई न था। उसी भतीजे के नाम उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति लिख दी। भतीजे ने सारी सम्पत्ति लिखाते समय ख़ूब लम्बे-चौड़े वादे किए, किन्तु वे सब वादे केवल कुली-डिपो के दलालों के दिखाए हुए सब्ज़बाग थे। यद्यपि उस सम्पत्ति की वार्षिक आय डेढ़-दो सौ रुपए से कम न थी तथापि बूढ़ी काकी को पेट भर भोजन भी कठिनाई से मिलता था। इसमें उनके भतीजे पंडित बुद्धिराम का अपराध था अथवा उनकी अर्धांगिनी श्रीमती रूपा का, इसका निर्णय करना सहज नहीं। बुद्धिराम स्वभाव के सज्जन थे, किंतु उसी समय तक जब कि उनके कोष पर आँच न आए। रूपा स्वभाव से तीव्र थी सही, पर ईश्वर से डरती थी। अतएव बूढ़ी काकी को उसकी तीव्रता उतनी न खलती थी जितनी बुद्धिराम की भलमनसाहत। 
                           
                             बुद्धिराम को कभी-कभी अपने अत्याचार का खेद होता था। विचारते कि इसी सम्पत्ति के कारण मैं इस समय भलामानुष बना बैठा हूँ। यदि भौतिक आश्वासन और सूखी सहानुभूति से स्थिति में सुधार हो सकता हो, उन्हें कदाचित् कोई आपत्ति न होती, परन्तु विशेष व्यय का भय उनकी सुचेष्टा को दबाए रखता था। यहाँ तक कि यदि द्वार पर कोई भला आदमी बैठा होता और बूढ़ी काकी उस समय अपना राग अलापने लगतीं तो वह आग हो जाते और घर में आकर उन्हें जोर से डाँटते। लड़कों को बुड्ढों से स्वाभाविक विद्वेष होता ही है और फिर जब माता-पिता का यह रंग देखते तो वे बूढ़ी काकी को और सताया करते। कोई चुटकी काटकर भागता, कोई इन पर पानी की कुल्ली कर देता। काकी चीख़ मारकर रोतीं परन्तु यह बात प्रसिद्ध थी कि वह केवल खाने के लिए रोती हैं, अतएव उनके संताप और आर्तनाद पर कोई ध्यान नहीं देता था। हाँ, काकी क्रोधातुर होकर बच्चों को गालियाँ देने लगतीं तो रूपा घटनास्थल पर आ पहुँचती। इस भय से काकी अपनी जिह्वा कृपाण का कदाचित् ही प्रयोग करती थीं, यद्यपि उपद्रव-शान्ति का यह उपाय रोने से कहीं अधिक उपयुक्त था। 

                            सम्पूर्ण परिवार में यदि काकी से किसी को अनुराग था, तो वह बुद्धिराम की छोटी लड़की लाडली थी। लाडली अपने दोनों भाइयों के भय से अपने हिस्से की मिठाई-चबैना बूढ़ी काकी के पास बैठकर खाया करती थी। यही उसका रक्षागार था और यद्यपि काकी की शरण उनकी लोलुपता के कारण बहुत मंहगी पड़ती थी, तथापि भाइयों के अन्याय से सुरक्षा कहीं सुलभ थी तो बस यहीं। इसी स्वार्थानुकूलता ने उन दोनों में सहानुभूति का आरोपण कर दिया था।

                       रात का समय था। बुद्धिराम के द्वार पर शहनाई बज रही थी और गाँव के बच्चों का झुंड विस्मयपूर्ण नेत्रों से गाने का रसास्वादन कर रहा था। चारपाइयों पर मेहमान विश्राम करते हुए नाइयों से मुक्कियाँ लगवा रहे थे। समीप खड़ा भाट विरुदावली सुना रहा था और कुछ भावज्ञ मेहमानों की 'वाह, वाह' पर ऐसा ख़ुश हो रहा था मानो इस 'वाह-वाह' का यथार्थ में वही अधिकारी है। दो-एक अंग्रेज़ी पढ़े हुए नवयुवक इन व्यवहारों से उदासीन थे। वे इस गँवार मंडली में बोलना अथवा सम्मिलित होना अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल समझते थे। 
आज बुद्धिराम के बड़े लड़के मुखराम का तिलक आया है। यह उसी का उत्सव है। घर के भीतर स्त्रियाँ गा रही थीं और रूपा मेहमानों के लिए भोजन में व्यस्त थी। भट्टियों पर कड़ाह चढ़ रहे थे। एक में पूड़ियाँ-कचौड़ियाँ निकल रही थीं, दूसरे में अन्य पकवान बनते थे। एक बड़े हंडे में मसालेदार तरकारी पक रही थी। घी और मसाले की क्षुधावर्धक सुगंधि चारों ओर फैली हुई थी। 

                    बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में शोकमय विचार की भाँति बैठी हुई थीं। यह स्वाद मिश्रित सुगंधि उन्हें बेचैन कर रही थी। वे मन-ही-मन विचार कर रही थीं, संभवतः मुझे पूड़ियाँ न मिलेंगीं। इतनी देर हो गई, कोई भोजन लेकर नहीं आया। मालूम होता है सब लोग भोजन कर चुके हैं। मेरे लिए कुछ न बचा। यह सोचकर उन्हें रोना आया, परन्तु अपशकुन के भय से वह रो न सकीं।

                 'आहा... कैसी सुगंधि है? अब मुझे कौन पूछता है। जब रोटियों के ही लाले पड़े हैं तब ऐसे भाग्य कहाँ कि भरपेट पूड़ियाँ मिलें?' यह विचार कर उन्हें रोना आया, कलेजे में हूक-सी उठने लगी। परंतु रूपा के भय से उन्होंने फिर मौन धारण कर लिया। 

                बूढ़ी काकी देर तक इन्ही दुखदायक विचारों में डूबी रहीं। घी और मसालों की सुगंधि रह-रहकर मन को आपे से बाहर किए देती थी। मुँह में पानी भर-भर आता था। पूड़ियों का स्वाद स्मरण करके हृदय में गुदगुदी होने लगती थी। किसे पुकारूँ, आज लाडली बेटी भी नहीं आई। दोनों छोकरे सदा दिक दिया करते हैं। आज उनका भी कहीं पता नहीं। कुछ मालूम तो होता कि क्या बन रहा है। 

               बूढ़ी काकी की कल्पना में पूड़ियों की तस्वीर नाचने लगी। ख़ूब लाल-लाल, फूली-फूली, नरम-नरम होंगीं। रूपा ने भली-भाँति भोजन किया होगा। कचौड़ियों में अजवाइन और इलायची की महक आ रही होगी। एक पूड़ी मिलती तो जरा हाथ में लेकर देखती। क्यों न चल कर कड़ाह के सामने ही बैठूँ। पूड़ियाँ छन-छनकर तैयार होंगी। कड़ाह से गरम-गरम निकालकर थाल में रखी जाती होंगी। फूल हम घर में भी सूँघ सकते हैं, परन्तु वाटिका में कुछ और बात होती है। इस प्रकार निर्णय करके बूढ़ी काकी उकड़ूँ बैठकर हाथों के बल सरकती हुई बड़ी कठिनाई से चौखट से उतरीं और धीरे-धीरे रेंगती हुई कड़ाह के पास जा बैठीं। यहाँ आने पर उन्हें उतना ही धैर्य हुआ जितना भूखे कुत्ते को खाने वाले के सम्मुख बैठने में होता है। 

              रूपा उस समय कार्यभार से उद्विग्न हो रही थी। कभी इस कोठे में जाती, कभी उस कोठे में, कभी कड़ाह के पास जाती, कभी भंडार में जाती। किसी ने बाहर से आकर कहा--'महाराज ठंडई मांग रहे हैं।' ठंडई देने लगी। इतने में फिर किसी ने आकर कहा--'भाट आया है, उसे कुछ दे दो।' भाट के लिए सीधा निकाल रही थी कि एक तीसरे आदमी ने आकर पूछा--'अभी भोजन तैयार होने में कितना विलम्ब है? जरा ढोल, मजीरा उतार दो।' बेचारी अकेली स्त्री दौड़ते-दौड़ते व्याकुल हो रही थी, झुंझलाती थी, कुढ़ती थी, परन्तु क्रोध प्रकट करने का अवसर न पाती थी। भय होता, कहीं पड़ोसिनें यह न कहने लगें कि इतने में उबल पड़ीं। प्यास से स्वयं कंठ सूख रहा था। गर्मी के मारे फुँकी जाती थी, परन्तु इतना अवकाश न था कि जरा पानी पी ले अथवा पंखा लेकर झले। यह भी खटका था कि जरा आँख हटी और चीज़ों की लूट मची। इस अवस्था में उसने बूढ़ी काकी को कड़ाह के पास बैठी देखा तो जल गई। क्रोध न रुक सका। इसका भी ध्यान न रहा कि पड़ोसिनें बैठी हुई हैं, मन में क्या कहेंगीं। पुरुषों में लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे। जिस प्रकार मेंढक केंचुए पर झपटता है, उसी प्रकार वह बूढ़ी काकी पर झपटी और उन्हें दोनों हाथों से झटक कर बोली-- ऐसे पेट में आग लगे, पेट है या भाड़? कोठरी में बैठते हुए क्या दम घुटता था? अभी मेहमानों ने नहीं खाया, भगवान को भोग नहीं लगा, तब तक धैर्य न हो सका? आकर छाती पर सवर हो गई। जल जाए ऐसी जीभ। दिन भर खाती न होती तो जाने किसकी हांडी में मुँह डालती? गाँव देखेगा तो कहेगा कि बुढ़िया भरपेट खाने को नहीं पाती तभी तो इस तरह मुँह बाए फिरती है। डायन न मरे न मांचा छोड़े। नाम बेचने पर लगी है। नाक कटवा कर दम लेगी। इतनी ठूँसती है न जाने कहां भस्म हो जाता है। भला चाहती हो तो जाकर कोठरी में बैठो, जब घर के लोग खाने लगेंगे, तब तुम्हे भी मिलेगा। तुम कोई देवी नहीं हो कि चाहे किसी के मुँह में पानी न जाए, परन्तु तुम्हारी पूजा पहले ही हो जाए। 

            बूढ़ी काकी ने सिर उठाया, न रोईं न बोलीं। चुपचाप रेंगती हुई अपनी कोठरी में चली गईं। आवाज़ ऐसी कठोर थी कि हृदय और मष्तिष्क की सम्पूर्ण शक्तियाँ, सम्पूर्ण विचार और सम्पूर्ण भार उसी ओर आकर्षित हो गए थे। नदी में जब कगार का कोई वृहद खंड कटकर गिरता है तो आस-पास का जल समूह चारों ओर से उसी स्थान को पूरा करने के लिए दौड़ता है।

            भोजन तैयार हो गया है। आंगन में पत्तलें पड़ गईं, मेहमान खाने लगे। स्त्रियों ने जेवनार-गीत गाना आरम्भ कर दिया। मेहमानों के नाई और सेवकगण भी उसी मंडली के साथ, किंतु कुछ हटकर भोजन करने बैठे थे, परन्तु सभ्यतानुसार जब तक सब-के-सब खा न चुकें कोई उठ नहीं सकता था। दो-एक मेहमान जो कुछ पढ़े-लिखे थे, सेवकों के दीर्घाहार पर झुंझला रहे थे। वे इस बंधन को व्यर्थ और बेकार की बात समझते थे। 
बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में जाकर पश्चाताप कर रही थी कि मैं कहाँ-से-कहाँ आ गई। उन्हें रूपा पर क्रोध नहीं था। अपनी जल्दबाज़ी पर दुख था। सच ही तो है जब तक मेहमान लोग भोजन न कर चुकेंगे, घर वाले कैसे खाएंगे। मुझ से इतनी देर भी न रहा गया। सबके सामने पानी उतर गया। अब जब तक कोई बुलाने नहीं आएगा, न जाऊंगी। 
             
                 मन-ही-मन इस प्रकार का विचार कर वह बुलाने की प्रतीक्षा करने लगीं। परन्तु घी की रुचिकर सुवास बड़ी धैर्य़-परीक्षक प्रतीत हो रही थी। उन्हें एक-एक पल एक-एक युग के समान मालूम होता था। अब पत्तल बिछ गई होगी। अब मेहमान आ गए होंगे। लोग हाथ पैर धो रहे हैं, नाई पानी दे रहा है। मालूम होता है लोग खाने बैठ गए। जेवनार गाया जा रहा है, यह विचार कर वह मन को बहलाने के लिए लेट गईं। धीरे-धीरे एक गीत गुनगुनाने लगीं। उन्हें मालूम हुआ कि मुझे गाते देर हो गई। क्या इतनी देर तक लोग भोजन कर ही रहे होंगे। किसी की आवाज़ सुनाई नहीं देती। अवश्य ही लोग खा-पीकर चले गए। मुझे कोई बुलाने नहीं आया है। रूपा चिढ़ गई है, क्या जाने न बुलाए। सोचती हो कि आप ही आवेंगीं, वह कोई मेहमान तो नहीं जो उन्हें बुलाऊँ। बूढ़ी काकी चलने को तैयार हुईं। यह विश्वास कि एक मिनट में पूड़ियाँ और मसालेदार तरकारियां सामने आएंगीं, उनकी स्वादेन्द्रियों को गुदगुदाने लगा। उन्होंने मन में तरह-तरह के मंसूबे बांधे-- पहले तरकारी से पूड़ियाँ खाऊंगी, फिर दही और शक्कर से, कचौरियाँ रायते के साथ मज़ेदार मालूम होंगी। चाहे कोई बुरा माने चाहे भला, मैं तो मांग-मांगकर खाऊंगी। यही न लोग कहेंगे कि इन्हें विचार नहीं? कहा करें, इतने दिन के बाद पूड़ियाँ मिल रही हैं तो मुँह झूठा करके थोड़े ही उठ जाऊंगी । 

                 वह उकड़ूँ बैठकर सरकते हुए आंगन में आईं। परन्तु हाय दुर्भाग्य! अभिलाषा ने अपने पुराने स्वभाव के अनुसार समय की मिथ्या कल्पना की थी। मेहमान-मंडली अभी बैठी हुई थी। कोई खाकर उंगलियाँ चाटता था, कोई तिरछे नेत्रों से देखता था कि और लोग अभी खा रहे हैं या नहीं। कोई इस चिंता में था कि पत्तल पर पूड़ियाँ छूटी जाती हैं किसी तरह इन्हें भीतर रख लेता। कोई दही खाकर चटकारता था, परन्तु दूसरा दोना मांगते संकोच करता था कि इतने में बूढ़ी काकी रेंगती हुई उनके बीच में आ पहुँची। कई आदमी चौंककर उठ खड़े हुए। पुकारने लगे-- अरे, यह बुढ़िया कौन है? यहाँ कहाँ से आ गई? देखो, किसी को छू न दे। 
पंडित बुद्धिराम काकी को देखते ही क्रोध से तिलमिला गए। पूड़ियों का थाल लिए खड़े थे। थाल को ज़मीन पर पटक दिया और जिस प्रकार निर्दयी महाजन अपने किसी बेइमान और भगोड़े कर्ज़दार को देखते ही उसका टेंटुआ पकड़ लेता है उसी तरह लपक कर उन्होंने काकी के दोनों हाथ पकड़े और घसीटते हुए लाकर उन्हें अंधेरी कोठरी में धम से पटक दिया। आशारूपी वटिका लू के एक झोंके में विनष्ट हो गई। 
मेहमानों ने भोजन किया। घरवालों ने भोजन किया। बाजे वाले, धोबी, चमार भी भोजन कर चुके, परन्तु बूढ़ी काकी को किसी ने न पूछा। बुद्धिराम और रूपा दोनों ही बूढ़ी काकी को उनकी निर्लज्जता के लिए दंड देने क निश्चय कर चुके थे। उनके बुढ़ापे पर, दीनता पर, हत्ज्ञान पर किसी को करुणा न आई थी। अकेली लाडली उनके लिए कुढ़ रही थी। 

                लाडली को काकी से अत्यंत प्रेम था। बेचारी भोली लड़की थी। बाल-विनोद और चंचलता की उसमें गंध तक न थी। दोनों बार जब उसके माता-पिता ने काकी को निर्दयता से घसीटा तो लाडली का हृदय ऎंठकर रह गया। वह झुंझला रही थी कि हम लोग काकी को क्यों बहुत-सी पूड़ियाँ नहीं देते। क्या मेहमान सब-की-सब खा जाएंगे? और यदि काकी ने मेहमानों से पहले खा लिया तो क्या बिगड़ जाएगा? वह काकी के पास जाकर उन्हें धैर्य देना चाहती थी, परन्तु माता के भय से न जाती थी। उसने अपने हिस्से की पूड़ियाँ बिल्कुल न खाईं थीं। अपनी गुड़िया की पिटारी में बन्द कर रखी थीं। उन पूड़ियों को काकी के पास ले जाना चाहती थी। उसका हृदय अधीर हो रहा था। बूढ़ी काकी मेरी बात सुनते ही उठ बैठेंगीं, पूड़ियाँ देखकर कैसी प्रसन्न होंगीं! मुझे खूब प्यार करेंगीं।
4
               रात को ग्यारह बज गए थे। रूपा आंगन में पड़ी सो रही थी। लाडली की आँखों में नींद न आती थी। काकी को पूड़ियाँ खिलाने की खुशी उसे सोने न देती थी। उसने गु़ड़ियों की पिटारी सामने रखी थी। जब विश्वास हो गया कि अम्मा सो रही हैं, तो वह चुपके से उठी और विचारने लगी, कैसे चलूँ। चारों ओर अंधेरा था। केवल चूल्हों में आग चमक रही थी और चूल्हों के पास एक कुत्ता लेटा हुआ था। लाडली की दृष्टि सामने वाले नीम पर गई। उसे मालूम हुआ कि उस पर हनुमान जी बैठे हुए हैं। उनकी पूँछ, उनकी गदा, वह स्पष्ट दिखलाई दे रही है। मारे भय के उसने आँखें बंद कर लीं। इतने में कुत्ता उठ बैठा, लाडली को ढाढ़स हुआ। कई सोए हुए मनुष्यों के बदले एक भागता हुआ कुत्ता उसके लिए अधिक धैर्य का कारण हुआ। उसने पिटारी उठाई और बूढ़ी काकी की कोठरी की ओर चली।
5
               बूढ़ी काकी को केवल इतना स्मरण था कि किसी ने मेरे हाथ पकड़कर घसीटे, फिर ऐसा मालूम हुआ कि जैसे कोई पहाड़ पर उड़ाए लिए जाता है। उनके पैर बार-बार पत्थरों से टकराए तब किसी ने उन्हें पहाड़ पर से पटका, वे मूर्छित हो गईं। 

              जब वे सचेत हुईं तो किसी की ज़रा भी आहट न मिलती थी। समझी कि सब लोग खा-पीकर सो गए और उनके साथ मेरी तकदीर भी सो गई। रात कैसे कटेगी? राम! क्या खाऊँ? पेट में अग्नि धधक रही है। हा! किसी ने मेरी सुधि न ली। क्या मेरा पेट काटने से धन जुड़ जाएगा? इन लोगों को इतनी भी दया नहीं आती कि न जाने बुढ़िया कब मर जाए? उसका जी क्यों दुखावें? मैं पेट की रोटियाँ ही खाती हूँ कि और कुछ? इस पर यह हाल। मैं अंधी, अपाहिज ठहरी, न कुछ सुनूँ, न बूझूँ। यदि आंगन में चली गई तो क्या बुद्धिराम से इतना कहते न बनता था कि काकी अभी लोग खाना खा रहे हैं फिर आना। मुझे घसीटा, पटका। उन्ही पूड़ियों के लिए रूपा ने सबके सामने गालियाँ दीं। उन्हीं पूड़ियों के लिए इतनी दुर्गति करने पर भी उनका पत्थर का कलेजा न पसीजा। सबको खिलाया, मेरी बात तक न पूछी। जब तब ही न दीं, तब अब क्या देंगे? यह विचार कर काकी निराशामय संतोष के साथ लेट गई। ग्लानि से गला भर-भर आता था, परन्तु मेहमानों के भय से रोती न थीं। सहसा कानों में आवाज़ आई-- 'काकी उठो, मैं पूड़ियां लाई हूँ।' काकी ने लाड़ली की बोली पहचानी। चटपट उठ बैठीं। दोनों हाथों से लाडली को टटोला और उसे गोद में बिठा लिया। लाडली ने पूड़ियाँ निकालकर दीं। 
काकी ने पूछा-- क्या तुम्हारी अम्मा ने दी है? 

लाडली ने कहा-- नहीं, यह मेरे हिस्से की हैं। 

              काकी पूड़ियों पर टूट पडीं। पाँच मिनट में पिटारी खाली हो गई। लाडली ने पूछा-- काकी पेट भर गया। 
जैसे थोड़ी-सी वर्षा ठंडक के स्थान पर और भी गर्मी पैदा कर देती है उस भाँति इन थोड़ी पूड़ियों ने काकी की क्षुधा और इक्षा को और उत्तेजित कर दिया था। बोलीं-- नहीं बेटी, जाकर अम्मा से और मांग लाओ।

लाड़ली ने कहा-- अम्मा सोती हैं, जगाऊंगी तो मारेंगीं। 

              काकी ने पिटारी को फिर टटोला। उसमें कुछ खुर्चन गिरी थी। बार-बार होंठ चाटती थीं, चटखारे भरती थीं। 

               हृदय मसोस रहा था कि और पूड़ियाँ कैसे पाऊँ। संतोष-सेतु जब टूट जाता है तब इच्छा का बहाव अपरिमित हो जाता है। मतवालों को मद का स्मरण करना उन्हें मदांध बनाता है। काकी का अधीर मन इच्छाओं के प्रबल प्रवाह में बह गया। उचित और अनुचित का विचार जाता रहा। वे कुछ देर तक उस इच्छा को रोकती रहीं। सहसा लाडली से बोलीं-- मेरा हाथ पकड़कर वहाँ ले चलो, जहाँ मेहमानों ने बैठकर भोजन किया है। 
लाडली उनका अभिप्राय समझ न सकी। उसने काकी का हाथ पकड़ा और ले जाकर झूठे पत्तलों के पास बिठा दिया। दीन, क्षुधातुर, हत् ज्ञान बुढ़िया पत्तलों से पूड़ियों के टुकड़े चुन-चुनकर भक्षण करने लगी। ओह... दही कितना स्वादिष्ट था, कचौड़ियाँ कितनी सलोनी, ख़स्ता कितने सुकोमल। काकी बुद्धिहीन होते हुए भी इतना जानती थीं कि मैं वह काम कर रही हूं, जो मुझे कदापि न करना चाहिए। मैं दूसरों की झूठी पत्तल चाट रही हूँ। परन्तु बुढ़ापा तृष्णा रोग का अंतिम समय है, जब सम्पूर्ण इच्छाएँ एक ही केन्द्र पर आ लगती हैं। बूढ़ी काकी में यह केन्द्र उनकी स्वादेन्द्रिय थी। 

               ठीक उसी समय रूपा की आँख खुली। उसे मालूम हुआ कि लाड़ली मेरे पास नहीं है। वह चौंकी, चारपाई के इधर-उधर ताकने लगी कि कहीं नीचे तो नहीं गिर पड़ी। उसे वहाँ न पाकर वह उठी तो क्या देखती है कि लाड़ली जूठे पत्तलों के पास चुपचाप खड़ी है और बूढ़ी काकी पत्तलों पर से पूड़ियों के टुकड़े उठा-उठाकर खा रही है। रूपा का हृदय सन्न हो गया। किसी गाय की गरदन पर छुरी चलते देखकर जो अवस्था उसकी होती, वही उस समय हुई। एक ब्राह्मणी दूसरों की झूठी पत्तल टटोले, इससे अधिक शोकमय दृश्य असंभव था। पूड़ियों के कुछ ग्रासों के लिए उसकी चचेरी सास ऐसा निष्कृष्ट कर्म कर रही है। यह वह दृश्य था जिसे देखकर देखने वालों के हृदय काँप उठते हैं। ऐसा प्रतीत होता मानो ज़मीन रुक गई, आसमान चक्कर खा रहा है। संसार पर कोई आपत्ति आने वाली है। रूपा को क्रोध न आया। शोक के सम्मुख क्रोध कहाँ? करुणा और भय से उसकी आँखें भर आईं। इस अधर्म का भागी कौन है? उसने सच्चे हृदय से गगन मंडल की ओर हाथ उठाकर कहा-- परमात्मा, मेरे बच्चों पर दया करो। इस अधर्म का दंड मुझे मत दो, नहीं तो मेरा सत्यानाश हो जाएगा। 
रूपा को अपनी स्वार्थपरता और अन्याय इस प्रकार प्रत्यक्ष रूप में कभी न दिख पड़े थे। वह सोचने लगी-- हाय! कितनी निर्दय हूँ। जिसकी सम्पति से मुझे दो सौ रुपया आय हो रही है, उसकी यह दुर्गति। और मेरे कारण। हे दयामय भगवान! मुझसे बड़ी भारी चूक हुई है, मुझे क्षमा करो। आज मेरे बेटे का तिलक था। सैकड़ों मनुष्यों ने भोजन पाया। मैं उनके इशारों की दासी बनी रही। अपने नाम के लिए सैकड़ों रुपए व्यय कर दिए, परन्तु जिसकी बदौलत हज़ारों रुपए खाए, उसे इस उत्सव में भी भरपेट भोजन न दे सकी। केवल इसी कारण तो, वह वृद्धा असहाय है। 

             रूपा ने दिया जलाया, अपने भंडार का द्वार खोला और एक थाली में सम्पूर्ण सामग्रियां सजाकर बूढ़ी काकी की ओर चली। 


          आधी रात जा चुकी थी, आकाश पर तारों के थाल सजे हुए थे और उन पर बैठे हुए देवगण स्वर्गीय पदार्थ सजा रहे थे, परन्तु उसमें किसी को वह परमानंद प्राप्त न हो सकता था, जो बूढ़ी काकी को अपने सम्मुख थाल देखकर प्राप्त हुआ। रूपा ने कंठारुद्ध स्वर में कहा---काकी उठो, भोजन कर लो। मुझसे आज बड़ी भूल हुई, उसका बुरा न मानना। परमात्मा से प्रार्थना कर दो कि वह मेरा अपराध क्षमा कर दें।

         भोले-भोले बच्चों की भाँति, जो मिठाइयाँ पाकर मार और तिरस्कार सब भूल जाता है, बूढ़ी काकी वैसे ही सब भुलाकर बैठी हुई खाना खा रही थी। उनके एक-एक रोंए से सच्ची सदिच्छाएँ निकल रही थीं और रूपा बैठी स्वर्गीय दृश्य का आनन्द लेने में निमग्न थी।

Sunday, September 9, 2018

“प्रेम चरणं नतमस्तक”




जनवरी की सर्द सुबह मानो पूरी स्रष्टि ही कोहरे की चादर ओढ़े बैठी हो,  मैं अपने घर से बहार निकल कर आया सोचा, थोडा मौसम का आनंद उठाया जाये |  इतनी सर्दी में घर से बाहर निकलना शायद मेरे लिए नुकसान दायक हो सकता है | लेकिन इस घर में मुझे रोकने वाला कोई नही है | या यूँ कहो की मेरी चिंता करने वाला अब कोई नही है |  जिसे मेरी सब से ज्यादा  चिंता थी, वो तो .........
ये सब सोचना छोड मैंने सोचा मौसम को थोडा करीब से देखा जाये |  उपर नज़र उठाई तो आसमान नही था | कोहरे में लिपटी सोंधी सोंधी हवा मेरे चहेरे पर शीतलता बिखरने लगी जैसे ये  हवा जानती है  की मेरी आत्मा को  एक मसाज़ की जरूरत है | और इस  चहरे के माध्यम से वो मेरी अंतरात्मा को ख़ुशी के चंद पल दे सकती है | मैं भी दोनों आँखे बंद करके प्रकर्ति के इस सेवा भाव का आनंद लेने लगा | चारो तरफ से मुझे एक चादर ने ढक रखा था | हर तरफ बस कोहरा ही कोहरा, उजाला है पर मैं कुछ देख नही सकता | हर तरफ बस कोहरा ही कोहरा न सूरज न चाँद और न ही तारे कितनी अजीब है न ये प्रकर्ति जिस कोहरे ने मेरे मन को प्रफुल्लित कर रखा है | उस  कोहरे के आगे सूरज चाँद जैसी शक्ति भी बेबस खड़ी है | बिलकुल मेरी तरह, मेरी जिन्दगी भी आज कुछ ऐसे ही मोड़ पर खड़ी थी | मैं चाह कर भी आगे नही बढ़ सकता था, और जो पीछे था, मैं लाख कोशिश करू तो भी उसे वापस नही पा सकता| क्योकि मेरा अत्तित तो आज ऐसी अवस्था में पड़ा है| जिसे मैं जगाना भी चाहूं तो जगा नही सकता|  मौसम भी बड़ी अजीब चीज़ है| अगर मनमुताबिक हो तो हमारे अंदर एक प्रफ्फुलता सी जागने लगती है| मन प्रसन्न सा हो जाता है| आप जिंदगी के कितने ही बुरे दौर से गुजर रहे हो आपको लगने लगता है की अब शायद सब सही होने वाला है| मुझे भी कुछ कुछ ऐसा ही महसूस होने लगा है की हो सकता है| मेरे  बुरे दिन अब  समाप्त होने वाले हो पर शायद ये मेरे मन का वहम  है|  क्योकि मैं आज जीवन के जिस मुकाम पर खड़ा हूँ| वहाँ से पुन पुराने सुनहरे दौर में लोटना मेरे लिए लगभग असंभव है|  इस वाक्य में लगभग शब्द की भी शायद कोई जरूरत नही है| ये तो पूर्णत असंभव है| पता नही ये सब विचार जिंदगी के प्रति मेरे नकारामक हो चुके मनोभाव  की परिणति है| या सम्पूर्ण जीवन का मेरा अनुभव |
 ईश्वर
अचानक ना जाने कहाँ से ये शब्द मेरे मस्तिष्क में कौंधा| और इस शब्द से मेरे चेहरे पर एक मुस्कान सी आ गई| जो इस शब्द का उपहास करने के मेरे स्वभाव के कारण उत्पन्न हुई है |  न जाने क्यों पूरा विश्व सिर्फ एक शब्द के लिए भागाभाग में लगा हुआ है| वो भी वो जिसका कोई अतित्व ही नही है |  ये शब्द मेरे लिए एक फ़िज़ूल का शब्द रहा हैं| मैंने जब से होश संभाला है| मैंने कभी भी ऐसी किसी शक्ति की उपस्थिति को नही माना क्योकि मुझे लगता है| की ईश्वर नाम की कोई शक्ति इस सम्पूर्ण जगत में कही नही है| जबसे मनुष्य ने धरती पर जीवन जीना प्रारंभ किया है| तब से वह ईसी शब्द के अस्तित्व को खोज रहा  है| और इस प्रयास में किसी को भी वास्तव में सफलता नहीं मिली और इसका कारण यह है| कि जब आप किसी ऐसी वस्तु, वस्तु जी हाँ मैं ईश्वर को मात्र एक वस्तु से ज्यादा कुछ भी नही मानता, तो जब आप किसी ऐसी वस्तु को ढूंढोगे| जिस का अस्तित्व नहीं है| तो उसे पाओगे कैसे ?
 ईश्वर या इसके सभी पर्यायवाची शब्द मात्र मानव मन की कल्पना है| जिसे मानव के अंदर बैठे हुए डर ने जन्म दिया है| अपने आप को डर से बचाने  के लिए उसने एक ऐसा सहारा ढूँढा जिसे वह सर्वशक्तिमान मानता है| और उस नाम का सहारा  लेकर वह अपने हर डर से लड़ सकता है| ईश्वर मानव  कि एक मानसिक बीमारी से ज्यादा और कुछ नही| और अब ये बीमारी लाइलाज हो चुकी हैं| जब भी ईश्वर शब्द मेरे मस्तिस्क में आता है| मेरे पिता जी  का चेहरा मेरे सामने आ जाता है| एक ऐसा इंसान जिसने अपना सम्पूर्ण जीवन ईश्वर जैसी बेवज़ह की चीज़ में लगा दिया |
 मैं एक ब्राम्हण परिवार में जन्मा था| मेरे पिता हमारे गांव के छोटे से मंदिर के पुजारी थे| हमारे छोटे से घर में बाबाजी मां और मैं हम तीन ही प्राणी थे। मेरे माता पिता दोनों ही भगवान में  बहुत विश्वास करते थे   उन्होंने बचपन से ही मुझे अपने धर्म के अनुसार गायत्री मन्त्र का जाप कराना  शरू करा दिया गया|  शायद वो मुझे भी इस बात के लिए मना लेते की ईश्वर वाकई में इस स्रष्टि में कही न कही मौजूद है| यदि उनके साथ वो घटना न होती जिसने मेरे जीवन के दिशा ही बदल दी|
अचानक कुछ मेरे सर से कुछ टकराया| अरे ये तो न्यूज़ पेपर है| शायद कोहरे की वजह से अख़बार देने वाल भी नही देख पाया होगा की यहाँ  कोई खड़ा भी है| मैं अपनी सब चिन्ताओ को एक तरफ रख अख़बार पढने में मशगूल हो गया| अब कोहरा धीरे धीरे कम होने लगा| ये मौसम भी बिलकुल मानव जीवन की तरह ही है| कुछ भी स्थाई नही है| पल पल रंग बदलता रहता है | अब मैंने सोचा चलो घर के अंदर चला जाये क्योकि ठण्ड का कहर अब मुझे कुछ ज्यादा ही सताने लगा था|  तभी एक गाड़ी के रुकने की आवाज़ आई|  मैंने मुख्य  दरवाजे  के पास आकर देखा मेरे बराबर वाले घर के सामने एक गाड़ी रुकी हुई थी| जोकि बहुत दिनों से खाली था| मैं अपने आगन से निकल कर उत्सुकतावश उस गाड़ी की तरफ बढ़ा| उस गाड़ी में से जो शख्स उतरा  है| वो मुझे कुछ जाना पहचाना सा लगा| वो व्यक्ति मुझे देखकर मेरे पास आया | और मेरे पाँव छूने लगा |
“प्रणाम चाचा  जी|”
“कौन, मनोज ?
जी |
बेटा बड़े दिनों के बाद आये हो| इस शहर को तो  तुमने छोड़ ही दिया है|
“नही, चाचा जी अब मैं वापस आगया हूँ| हम सब अब यही रहेगे| “ चेहरे पर हलकी सी मुस्कान लिए वो बोला|
“चलो तुम लोगो के आने से मेरा भी मन  लग जायेगा|”
“और चाचा जी, माँ कैसी है | “
मनोज मेरे बेटे रवि का बचपन का दोस्त है| बचपन से ही रवि की देखा देखि मनोज भी मेरी पत्नी को माँ कहकर ही   बुलाने लगा था| बहुत सालो तक हमारा परिवार और मनोज का परिवार पडोसी रहे है| फिर मनोज के पिता का ट्रान्सफर अमेरिका हो गया और इन लोगो ने देश छोड़ दिया|
“चाचा जी” मनोज ने मुझे झकझोर कर मुझे विचारो के भवर से बहार निकाला|
“बेटा तुम्हारे इस सवाल का मेरे पास कोई जवाब नही है|” कह  कर मैं वापस अपने घर के और मुड गया |
मनोज अवाक् सा मुझे देखता रहा |

मैं अंदर कमरे में आकर बैठ गया| मनोज के दादा मेरे पिता के बहुत ही अच्छे मित्र थे| मेरे पूर्वज मंदिर में पुजारी थे बरसों से हम ईश्वर की पूजा कर रहे  थे|  किन्तु उतने ही बरसो से हम गरीबी की जिंदगी भी जी रहे थे| मेरे पिता ने भी उसी काम को अपनाया लेकिन इस वज़ह से नही की उन्हें अपने पूर्वजो का काम आगे बढ़ाना था |  बल्कि इसलिए की मेरे पिता ईश्वर को बहुत मानते थे| और मेरी माँ भी उन्हें ऐसी ही मिली | उन्हें भी ईश्वर से बहुत ही प्रेम था | वो दोनों ताउम्र एक ऐसी शक्ति को प्रेम करते रहे| जोकि अस्तित्व में ही नही है| मेरे पिता ने बहुत कोशिस की मैं भी उनकी तरह ही बनू पर ऐसा नही था| मैं उन दोनों से बिलकुल ही अलग था|  मुझे ईश्वर पर तनिक भी विश्वास नही था|  हलाकि पिताजी के कहने पर मैं अक्सर उनके साथ बैठ कर पूजा करता था और वो केवल इस लिए क्योकि मेरी माँ ऐसा चाहती थी| उन्हें लगता था की यदि मैं ईश्वर में ध्यान लगाउंगा  तो एक दिन जरुर ईश्वर को मानने लगूगा| लेकिन ये कभी नही हो पाया| कैसे मैं ईश्वर की सत्ता को मान लू यदि वो सचमुच इस स्रष्टि में होता तो बरसो तक उसकी सेवा में रहने वाले इंसान इतनी गरीबी और मुफलिसी में क्यों जीवन बिताते और क्यों मेरे पिता धार्मिक उन्माद की बलि चढ़ जाते|  धर्म की पट्टी आँखों पर बाधने  वाले कुछ पागल उन्हें क्यों बे वजह मार देते|

 मैं उस दिन को कभी नही भुला सकता कुछ दंगाईयों ने मेरे पिता को सिर्फ इसलिए मार दिया क्योकि वो उनके धर्म से वास्ता नही रखते थे| पिता की मृत्यु के शोक को मेरी माँ सहन नही कर पायी वो ज्यादा दिन अपने प्राणों को नही रोक पाई| कुछ दिन बाद उनकी भी मृत्यु हो गयी फिर वहाँ से मनोज के दादा जोकि इस दिल्ली शहर में व्यापार करते थे| मुझे अपने साथ ले आये मैंने उनके साथ ही व्यापार सिखा और फिर अपने पैरो पर खड़ा हो गया| विचारो के बीच मेरी नज़र सामने लगी दिवार घडी पर पड़ी |

ओफ्फ्फ ममता को दवाई देने का समय हो गया मैं जल्दी उठा और ममता के कमरे की और बढ़ा सामने बेड पर ममता लेटी हुई थी| मैंने उसे दवा दी और उसके ही पास बैठ गया मेरी नज़र सामने  मुस्कुराती हुई मेरी पत्नी के फोटो पर पड़ी उसकी हंसी देख मेरे चेहरे पर भी मुस्कान आ गयी| मुझे उसकी मुस्कान बेहद पसंद है|  यही तो किया है| उस पागल ने ताउम्र बस  सब को हसाया ही है| किसी किसी इंसान के ह्रदय में कितना प्रेम होता है| ममता का मन भी ऐसे ही प्रेम से सराबोर  था| अनंत तक फैला प्रेम जिसे वो बाटना जानती थी | उस प्रेम का ही कारण है| की वो भगवान  जैसी शक्ति में भी आसानी से विश्वास कर लेती है| समझ में नही आता उसे मूर्ख कहू या बहुत ही सरल और सीधी|  मेरे माता पिता भी तो ऐसे ही थे| वो भी ईश्वर को बहुत मानते थे और ताउम्र वो भगवान से चिपके रहे|
      

ममता एक सभ्य परिवार की लड़की थी। किन्तु उसकी भी भगवान् में  बहुत आस्था थी| बस  इस कमी के आलावा उसमे कोई कमी नही  थी| अक्सर मेरे और उसके बीच भगवान को लेकर बहस होती| वो मिट्ठी लड़ाई आज भी मेरे सामने एक चलचित्र की तरह हमेशा चलती रहती है|
अरे यार क्या बकवास है| मुझे ऑफिस के लिए लेट हो रहा है और तुम अभी तक अपने भगवान्  से चिपकी हो

मैं क्रोधित हो के बोलता|

वो जवाब में बस  मुस्कुरा देती, सफ़ेद मोती से चमकते उसके दांत उसकी मुस्कराहट में चार चाँद लगा देते| उसकी मनमोहिनी हंसी में कुछ तो जादू था| जिसकी  समोहक शक्ति से आपके अंदर बसा  प्रेम अपने आप ही यूँ खीचा चला आता है| जैसे पूर्णिमा के चाँद की देख चकोर भागा चला जाता है| अक्सर उसकी प्रेम पूर्ण मुस्कान से मेरा क्रोध गायब हो जाता था| पर आज वो दिन नही था मैं आज वाकई में क्रोधित था|

ममता क्या ड्रामा है ये ?“
“कोन सा ड्रामा|”
ये ही तुम्हारे भगवान् का|”
भगवान तो सबका है| मुझ अकेली का नही वो हँसते हुए बोली| “
shutt up मैं जोर से चिल्लाया|
मजाक बंद करो, कभी देखा है भगवान को|”
‘’हाँ मुझे भगवान दिखता  है| इसलिए मैं मानती हूँ| आपको नही दिखते, इसलिए आप  नही मानते|
अच्छा एक बात बताओ जो तुम देखते हो केवल उसी पर विश्वास करते तो| “

“हाँ बिलकुल|”
“इसका मतलब तो हवा नाम की भी कोई चीज़ नही है| “
“क्यों, मैं हवा को देख नही सकता| लेकिन  महसूस तो कर सकता हूँ”
“बिलकुल यही तो मैं बरसो से आप को समझा रही हूँ| की भगवान को देखा नही जाता उन्हें महसूस किया जाता है| “

तुम कैसे कह सकते हो की भगवान नही है|”
साइंस कहता है, अगर आप किसी वस्तु को देख और स्पर्श नही कर सकते तो साइंस के हिसाब से उस वस्तु का कोइ अस्तित्व नही है| हवा मुझे दिखती नही लेकिन हवा मुझे स्पर्श करती है|”
और आपको ये कैसे पता लगेगा की आप वस्तु को देख या स्पर्श कर रहे हो|
सीधी सी बात है अपनी ज्ञानेन्द्रियों से|”
इस जवाब पर वो जोर से हंसी|
क्या आप ने अपनी ज्ञानेन्द्रियों को कभी देखा है या स्पर्श किया है|
मैं कोइ जवाब न दे सका| जड सा खड़ा सिर्फ उसे देखता रहा इसका मुझे कोइ जवाब न सुझा |   
इसका मतलब आपके पास ज्ञानेन्द्रियाँ नही है|
 “चलो एक प्रेसेंट मैंने मान भी लिया की भगवान है| तो फिर उन्होंने मेरे पिता को जीवन भर दुःख क्यों दिया और उनकी हत्या भी उसी भगवान के प्रशंसको ने की थी| क्यों अच्छा काम करने वालो को दुःख और बुरा काम करने वालो को सुख देता है तुम्हारा भगवान्| “

मेरे इस सवाल के जवाब मे उसके चेरहे पर केवल एक मुसकुराहट थी| बिलकुल वैसी जैसे किसी teacher के मुख पर होती है| जब वो किसी नासमझ बच्चे के मुह से कोइ बे सिर पैर का सवाल सुनता है|
इस प्रश्न का उत्तर इतना आसन नही है|”
“दरअसल इस सवाल का जवाब आपके पास है ही नही|”
“ऐसा नही है मेरे प्रियतम प्यारे| कुछ सवालों का जवाब केवल समय ही दे सकता है|”
हा हा हा  अब हसने की बारी मेरी थी| इसका मतलब तुम मेरे इस तर्क के समुख नतमस्तक हो गयी|  

अच्छा बाबा तुम सही और मैं गलत बस|
बस यही आकर हमारा वाद विवाद समाप्त हो जाता ममता जो की मुझसे बहुत प्यार करती थी| मुझे नाराज होते नहीं देख सकती केवल मुझे खुश करने के लिए वो हार भी मान लेती थी|


ठक ठक ठक
मैं अभी विचारों के समंदर में गोते लगा रहा था| कि दरवाजे पर किसी की दस्तक ने मेरे मन को फिर उसी संसार में लौटा दिया जहाँ मैं एक क्षण भी रुकना नही चाहता पर क्या करे जीवन तो जीना ही है|  मुझे लगा ममता की नर्स आ गई| लेकिन मेरा मानना गलत था| दरवाजे पर मनोज था|
आओ मनोज|”
नमस्ते चाचा जी|”
मनोज के साथ उसकी पत्नी भी थी| लाल साड़ी में साड़ी का पल्ला सिर को ढके हुए था| सांवला रंग और चेहरे पर मुस्कान| अपनी गोदी में बच्चे को लिए हुए उसने मेरे पैर छुए|
नमस्ते चाचा जी|”
नमस्ते बेटा, बेटा मुझे माफ करना मैं तुम्हारी शादी में नहीं आ पाया|”
वह सिर्फ मुस्कुरा कर रह गई जैसा कह रही हो कि मुझे आप से कोई शिकायत नहीं है| वो शायद इसीलिए कि उसे लगा होगा की जो आदमी खुद इतना परेशान है उस से क्या शिकायत की जाए|
बैठो मैंने दोनों को बैठने का इशारा किया| यह तुम्हारा बेटा है, क्या ?”
मैंने गोदी में बैठे हुए बच्चे की ओर इशारा करते हुए पूछा|
हां चाचा जी|” मनोज ने कहा
यह आपका पोता है|”
कितने महीने का है|”
यह अभी 6 महीने पूरे हुए हैं|”
नेहा मनोज की पत्नी ने बीच में जवाब दिया वह बच्चे एक ऐसी रहस्यमई मुस्कान के साथ मेरी ओर देख रहा था जैसे  मुझे बरसों से जानता है|
कितना प्यारा बच्चा है| उसकी मुस्कान बहुत ही मनमोहनी है| क्या नाम है इसका|”
मैंने मनोज को देखते हुए पूछा मेरे इस सवाल का एक अलग सा प्रभाव दिखा|
मैं नहीं जानता क्यों ? मनोज नेहा ने अजीब ढंग से एक दूसरे की ओर देखा जैसे दोनों ने कोई चोरी की हो और आज मैंने उनकी चोरी पकड़ ली|
अरे क्या हुआ|” समय से जवाब न मिलने के कारण मैंने मनोज से पूछा|
रवि|” नेहा का जवाब आया|
“हहं” रवि इस शब्द ने मेरे चित पर  ऐसा प्रहार किया जैसे किसी ने झकझोर कर नींद से जगा दिया हो| ऐसा लगा जैसे मेरे खून का संचार बरसों से बंद था| एकदम चालू हो गया| एक झनझनाहट सी पूरे शरीर में दौड़ गई| आवाज मेरे दोनों कानों से होते हुए मस्तिष्क से टकराने लगी|
मैं नहीं जानती कि हमने ऐसा क्यों किया? पर हम दोनों के मन में सबसे पहला नाम यही आया|”
नेहा ने सिर  झुकाते  हुए जवाब दिया|
पर मैं जानता हूं| मैंने मामला संभालते हुए जवाब दिया|”
रवि के प्रति मनोज का प्रेम ही इसका कारण है| इसकी मुस्कान देखो बिल्कुल रवि के जैसी है| तुम लोगों ने बचपन में रवि को देखा होता तो जरूर समझ पाते मेरी बातों से संतोषजनक मुस्कान दोनों के चेहरे पर लौट आई|”
मैंने बच्चे को गोद में उठा लिया|
मैं भी रवि भैया से मिली थी|”
भैया मुझे बहुत अच्छे लगते थे| उनके जाने का मुझे बहुत दुख है| इसीलिए शायद उनका नाम हम हमेशा अपने साथ रखना चाहते है|”
मैं एक मुस्कान लिए नेहा कि ओर  देखा शब्दों से मैं कुछ नहीं कह पाया पर मेरी आंखों ने रवि के प्रति उसके प्रेम और सन्मान के लिए धन्यवाद बोल दिया|
चाचाजी मां कहां है?” मनोज ने पूछा|
वह अंदर वाले कमरे में है|”
हम उनसे मिल ले क्या ?”
“कमाल है| तू उसे माँ भी बुलाता है| और उससे मिलने के लिए मुझसे आज्ञा भी मांग रहा है| बेटा माँ का स्थान हमेशा बाप से बड़ा होता है| जाओ|”

मनोज और नेहा दूसरे कमरे में चले गए और मैं बच्चे के साथ खेलने में मगन हो गया|  इतने समय के बाद मेरे चहरे पर  मुस्कान आई है| और वो  केवल नन्हे से बच्चे के वजह से| छोटे बच्चों की हंसी कितनी  निस्वार्थ होती है| बिल्कुल पावन, सर्द मौसम में सूरज की पहली किरण सी,  तपती दोपहरी में बरगद की छांव सी, वाकई में एक अजीब सी ऊर्जा प्रदान करती है बच्चों की हंसी|
ऊर्जा इस शब्द ने मुझे पुनः उसे स्मृति में लौटा दिया जिस से पीछा छुड़ाने के लिए मैं लगातार भाग रहा हूं| इस शब्द का इस्तमाल  ममता बखूबी करती थी|
अरे यार तुम्हारे यह सब बातें मेरी समझ से परे हैं|”
कौन सी बातें|”
ममता ने पूछा|
यही मंदिर जाना|”
हर रविवार मुझे उसके साथ में मंदिर जाना होता था| ना चाहते हुए भी|
क्यों मैं तो सिर्फ आपका साथ चाहती हूं| मैंने कभी आपको मंदिर के अंदर जाने के लिए तो नहीं कहा ना|”
अरे बाबा वह बात नहीं है| एक तरफ तो तुम कहती हो कि भगवान हर जगह मौजूद है| अगर वह हर जगह है| तो तुम मंदिर जाने की क्या जरूरत है|”
क्या आप जानते हो आत्मा क्या है|”
नहीं देवी आप ही बता दो|”
हा हा हा हा हा
फिर हंसी फिर वही दिल छूने वाली हंसी|”
आत्मा एक उर्जा है| उर्जा समझते हो, एनर्जी |”
“अरे तुम मुझे बेवकूफ मानती हो मुझे सब पता है| आगे बोलो| जिसे भगवान में विश्वास नही उसे मुर्ख ना मानू तो और क्या मानू|”
“क्या |”
“हा हा हा हा| कुछ नही”
“ही ही ही ही, बस दांत फाड़ने के आलावा भी कुछ आता है तुम्हे|” मैं चिढ कर बोला|
“आप जब किलेस्ते हो तो कैसा चेहरा बना लेते हो|” उसकी हंसी रुकने का नाम ही नही ले रही थी|  
अच्छा तुम दांत फाड़ो मैं तो चला|

अरे मेरे हृदय के स्वामी कहाँ चले| अच्छा sorry अब नही हसूंगी|” दोनों हाथों से अपने कान पकड़ कर वो बोली |
देखो आत्मा एक ऐसी एनर्जी है| जिसमे पॉजिटिव और नेगेटिव दोनों प्रकार की ऊर्जा का समावेश है| ईश्वर है ओन्ली पॉजिटिव एनर्जी| और मुझे श्री राम की मूरत में वो ही पॉजिटिव एनर्जी दिखाई देती है इसलिए मैं भगवान को मानती हूँ|”

ये तो मेरे सवाल का जवाब नही हुआ|
बेशक मैं भगवान को न मानता हूं| पर ममता जब बोलती थी| तो सुनने में मुझे बहुत आनंद आता था|
“उर्जा की प्रकृति होती है| कि वह कभी भी एक जगह ठहर नहीं सकती वह चलायमान है| निरंतर एक जगह से दूसरी जगह व्यक्ति एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में ट्रांसफर होती रहती है| मंदिर जैसी जगहों पर ना चाहते हुए भी जाने वाला व्यक्ति भगवान की मूर्ति पर ध्यान लगाता है| और क्योंकि भगवान उन लोगों की नजर में ईश्वर आदरणीय है इसलिए उनकी पॉजिटिव एनर्जी में वृद्धि होती है| उनकी कुछ एनर्जी उस क्षेत्र में रह जाती है| जो उस क्षेत्र में आने वाले अन्य लोगों को फायदा पहुंचाती है|”
व्हाट रबिश, यह कैसा लॉजिक है|”
यही तो वह लॉजिक है| श्रीमान जिसे हजारों साल पहले हमारे पूर्वजों ने पहचान लिया था और हम आज तक भी नहीं पहचान पाए| अच्छा यह बताओ आप किसी शराबखाने में गए हो|
क्या|”
“बार, बार में गए हो कभी|”
हां, एक दो बार गया हूं|”
क्या बार जैसी जगह पर जाकर आपके दिमाग में गलत ख्याल नहीं आते|” उसके इस वाक्य में मुझे तुम सोच में डाल दिया|
आते हैं ना|” मैंने गंभीर मुद्रा में जवाब दिया|

मनोज और नेहा कमरे में वापस आ चुके थे|

“चाचा जी, यह सब कैसे हुआ है|”  मनोज के सवाल ने मेरी तन्द्रा को भंग किया जो मुझे अक्सर ममता के पास ले जाती थी|
“मनोज तुम तो जानते ही हो की ममता रवि से कितना प्यार करती थी|”
“हाँ चाचा जी मुझे अच्छे से याद है| की जब वो एयरफोर्स की ट्रेनिंग पर जा रहा था तो उसके जाने के बाद माँ कितना रोई थी| उनकी आँखे भी सूज गयी थी|”  

“हम्म, उसका ये प्रेम ही उसके लिए अभिशाप बन गया| रवि की मौत की खबर सुन कर ममता अंदर से बिलकुल टूट गयी थी| हर समय रवि को याद करना और उसके बारे में सोचना, बस इन सब से ही उसका दिमाग असंतुलित हो गया  पुरे दिन बस ये ही बोलती रहती थी की  एक दिन रवि वापस आएगा उसे आना पड़ेगा|” न चाहते हुए भी ये सब बताते हुए मेरी आँखों से आंसू गिरने लगे|

डॉक्टर का क्या कहना है|” नेहा के इस सवाल ने कमरे में तैरती शांति के अस्तित्व को अपने शब्दों की बौछार से समाप्त कर दिया|
बेटा डॉक्टरों ने कोई निश्चित समय सीमा नहीं बताई, उनका कहना है| यह 1 दिन में भी ठीक हो सकती हैं| और ताउम्र भी ठीक नहीं हो सकती|
अब तो सब भगवान के हाथ में है|” नेहा ने एक लंबी सांस लेते हुए कहा|
क्या तुम्हें सचमुच लगता है, भगवान है|”
“मैं कुछ समझी नही चाचा जी|”
लगता है| तुम भी ममता की श्रेणी में हो|”
मतलब नेहा का सवाल|
तुम भी भगवान नाम की चीज को मानती हो|”
हां चाचा जी, मैं भगवान को मानती हूं| और बहुत मानती हूं|”
पर भगवान जैसी कोई भी शक्ति नहीं है बेटा|” मैंने थोड़ा कठोर स्वर में कहा|
रवि की मृत्यु और ममता की इस दशा ने भगवान के प्रति मेरी घृणा को और अधिक बढ़ा दिया था|
लेकिन चाचा जी|”
नेहा  कुछ कहना चाहती थी| किंतु मनोज के स्पर्श ने शायद नेहा को रोकने का आदेश दिया और वह आगे ना बोल सकी|
नेहा एक अच्छी लड़की है| वह मुझे पिता के समान मानने लगी| अपने घर के साथ-साथ वह मेरे घर का भी सारा काम करती| ममता की देखभाल के साथ साथ मेरी भी दवा का हमेशा ध्यान रखती थी,  बिल्कुल सगी बेटी जैसी| उसके प्रति मेरे मन में बहुत श्रद्धा थी| बिना किसी लालच के वह हम दोनों के प्रति इतनी समर्पित थी| जाने कौन से जन्म का रिश्ता है इस गुड़िया से मेरा| बेटियां भगवान का दिया सबसे बड़ा उपहार होती है| एक पिता के लिए बेटी उसकी मां बनकर पिता की सेवा करती है| कितना  प्रेम और वात्सल्य होता है| इनके ह्रदय में | केवल स्त्री ही ईट पत्थरों  के मकान को घर बना सकती है| क्योकि घर को बनाने के लिए जिस समर्पण के आवश्यकता होती है केवल एक स्त्री के पास ही होता है| नेहा  अक्सर अपने बेटे को मेरी गोद में बैठा जाया करती थी| उस नन्हे से बच्चे ने मेरे सारे गमों पर मरहम लगा दिया था| उसका प्यार मेरे जीवन में संजीवनी बन कर आया था| लेकिन जब भी ममता का ख्याल आता मन पुनः दुखों के भवंर में डूब जाता| ममता का दुःख मुझसे देखा नही जाता | उसकी विरह में मेरा मन तड़पता था|वो पास होकर भी मुझसे कितनी दूर थी| कई बार मेरा दुःख असहनीय हो जाता | अपने आप को बचाने के लिए चित चिल्लाता, फडफडाता  किंतु दूर-दूर तक कोई बचाने वाला ना दिखता| हर तरफ़ बस अनिश्चितता ही अनिश्चितता फैली दिखाई देती| अँधेरा इतना गहरा की कहीं कोई समाधान नहीं| ऐसे में पिताजी की एक बात याद आती है| जो अक्सर वो बचपन में मुझे समझाते थे|
जिसका कोई ना सहारा, उसका राम है पालनहारा
राम लेकिन राम तो कोई नहीं है| ये सोच कर मैं मन ही मन मुस्कुराया| लोगो का ये दुःख ही तो है| जो भगवान को जिन्दा रखे हुए है|
चाचा जी नेहा की आवाज में मुझे नींद से जगा दिया घड़ी की ओर देखा तो सुबह के 6:00 बजे थे|
क्या हुआ बेटी|”
“अरे आप अभी तक सो रहे हो|”
“क्या करू बेटा रात में नींद जरा देर से आई|”
“ठीक है, कोइ नही आपको माफ़ किया| लेकिन एक शर्त पर|”
“वो क्या |”
चाचा जी, जल्दी तैयार हो जाइए आपको मेरे साथ चलना है|”
कहां
“बस ये ही शर्त है की आप पूछेगे नही| वह मैं बाद में बताऊंगी ठीक है| 7:00 बजे चलना है|” कह कर वो वापस जाने लगी|
लेकिन ममता.” मैं पीछे से चिल्लाया|
वह सब चिंता छोड़ दो मैंने सब इंतजाम कर दिया है|”

ठीक ७ बजे हम दोनों और नेहा का बेटा गाड़ी में बैठे थे|
“वैरी गुड चाचा जी आप तो टाइम से तैयार हो गए| गुड बॉय” नेहा हँसते हुए बोली|
मैं अच्छे से जानता हूँ की इस तरह की बातें वो मुझे नार्मल रखने के लिए करती है|   
“हाँ बेटा मुझे तुझसे बहुत डर लगता है|” वो हंसी|
बेटा हम कहां जा रहे हैं|”
चाचाजी आज रवि का जन्मदिन है| इसलिए छोटी सी ट्रिप है| बाकी आपको वहां पहुंचकर ही पता लगेगा|”
अरे हमारा बेटा 1 साल का हो गया|”
मैंने प्यार से रवि के गाल को सहलाया और वह भी मुस्कुरा दिया| गाड़ी जिस रास्ते पर जा रही थी मैं इसे अच्छे से जानता हूँ|
“अरे ये कहाँ जा रहे है हम|”
नेहा ने अपने होठो पर ऊँगली रख के मुझे चुप रहने का इशारा किया| और कमाल देखो मैं भी मासूम बच्चे के तरह चुप हो गया| हमारी गाड़ी एक मंदिर के पास जाकर रुकी| मैं इस मंदिर को अच्छे से पहचानता हूं| मेरे पिता कभी इस मंदिर के पुजारी हुआ करते थे|मेरे बचपन का अधिकांश भाग इस मंदिर के प्रांगन में व्यतीत हुआ है|  
“ये सब क्या है नेहा तुम मुझे यहाँ क्यों लाइ हो|”
“पता नही पर आप चलो मेरे साथ|”
सॉरी, मैं तुम्हारे साथ नहीं चल सकता|”
पापा, सॉरी चाचा जी चलना तो आपको पड़ेगा ही|” वो डांटते हुए बोली|
पापा बड़े दिनों के बाद ये शब्द कानो में पड़ा| जैसे पूरी अन्तेरात्मा में घुल सा गया हो| मैं एक मासूम से बच्चे की तरह सम्मोहित होकर नेहा के पीछे चल दिया|

मंदिर की दीवारें, फर्श, पेड़-पौधे सब मुझे पुराने दिन याद दिलाने लगे | सामने की वह चौकी जिस पर मेरे बाबूजी बैठा करते थे| मन हुआ उस जगह को चूम लू , पर मैं मजबूर था| उम्र बढ़ने का सबसे बड़ा नुकसान यही है, आप जो चाहो वह कर नहीं सकते| नेहा ने रवि को फर्श पर खड़ा कर दिया वह धीरे-धीरे चलना सीख रहा था| मैं रवि के पास ही खड़ा रहा क्योंकि मैं कभी भी मंदिर के अंदर नही जाता था| नेहा मंदिर में पूजा करने चली गयी | पता नही पत्थर के सामने हाथ जोड़ कर ये लोग क्या सिद्ध करना चाहते है| ये सवाल जब मैंने ममता से पूछा
“क्या सच में ? ये पत्थर की मूरत है? मुझे लगा भगवान है| ओह्ह्ह मुझसे तो बहुत बड़ी गलती हो गयी| मैं आज तक पत्थर को भगवान समझ रही थी| आज आपने मेरी जान्खे खोल दी| ”
मुझे ऐसा क्यों लग रहा है| की तुम मेरा मजाक उड़ा रही हो| मैंने थोडा सख्त लहजे में उससे पुछा|
मेरे ह्रदय के स्वामी, वो आपको इसलिए ऐसा लग रहा है| क्योंकि मैं सच में आप का मजाक उड़ा रही हूँ| बेचारे इतना बोल कर वो बहुत जोर से हंसी|
मेरा क्रोध बढ़ने लगा| मुझे क्रोधित होता देख उसने बात संभाली|
अच्छा एक बात बताओ की आपने माता पिता की फोटो को अपने पास क्यों रख रखा है|
वो तो इसलिए की मुझे उनकी तस्वीर देख कर अच्छा लगता है| उनकी याद आती है|
exectly, अब दोबारा मत पूछना की मैं पत्थर के भगवान् के हाथ क्यों जड़ती हूँ|
उसके इस जवाब ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया| ममता वाकई में बहुत ही बुद्धिमान थी मेरे| हर सवाल का उसके पास जवाब था| पूजा करने के बाद नेहा मुझे पेड़ के पास बैठे एक भगवा वस्त्र पहने व्यक्ति पास ले गई|
प्रणाम|”
“आयुष्मती, रहो|”
“नही, बाबा सदा सुहागन वाला आशीर्वाद दो|” बाबा हँसे|
“अच्छा बेटा, सदा सुहागन रहो|” स्त्री भी कितनी अजीब होती है| उसे कभी भी अपने लिए कुछ नही चाहिए|
“बाबा, मैं मनोज जी की पत्नी हूं|”
मेरे चेहरे पर अनेक सवाल उभरने लगे| मैंने नेहा की तरफ प्र्शंवाचाक मुद्रा में देखा| और वो मुझसे नज़र चुरा रही थी|  लेकिन अभी मुझे मेरे किसी भी प्रश्न का जवाब मिलने में अभी देर थी|
अब कैसी तबीयत है, ममता की ?”  इस सवाल ने मेरी दुविधा को  और ज्यादा बढ़ा दिया|
कुछ नहीं कह सकते अभी कोई सुधार नहीं है|”
आप ममता को कैसे जानते हो?” ममता का नाम आते ही मैं ज्यादा देर अपनी दुविधा को संभाल नही सका था| मैंने सवाल दागा|
“बेटा हम तो बंजारे हैं| जगह जगह भटकना ही हमारी नियति है| बस घूमते-फिरते एक दिन ममता से मुलाकात हुई थी|  और उनके पुत्र से भी मुलाकात हुई थी| सचमुच देवी है| आपकी पत्नी|”

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आप मुझे भी जानते हो?”
वह केवल मुस्कुरा दिए|
“तुम्हे तो मैं उस समय से जानता हूँ जब तुम स्वयं अपने आप को भी नही जानते थे|”
“मतलब, मैं कुछ समझा नही| आप मुझे कैसे जानते हो |”
तुमसे मिलने की मेरी बहुत इच्छा थी| इसलिए मैंने ही मनोज से आपको यहां भेजने के लिए कहा था|” मैंने बड़ी रहस्य भरी नजरों से नेहा की ओर देखा उसकी आंखों में जरा भी घबराहट नहीं थी| जैसे कह रही हो आपके सभी सवालों का जवाब मेरे पास है| पर अभी नहीं, बड़ी दिलेर है ये लड़की या यह सच के साथ है इसलिए इसकी आंखों में डर नहीं है |

“ वैसे तो मैं तुम से मिलने तुम्हारे घर भी आ सकता था| पर मुझे लगा तुम्हारा यहाँ आना बहुत जरुरी है|”
“ये मेरे सवाल का जवाब नही है|” मैंने पुनः बाबा की और सवाल दगा|
“इस गाँव ले लोग मुझे नही जानते किन्तु मैं इस गाँव के लोगो को अच्छे से जानता हूँ| और रामशरण तो मेरा सबसे प्रिय मित्र था| इस बार इस तरफ आया तो सोचा कुछ दिन इस मंदिर में आराम करू किन्तु जब इस मंदिर में प्रविष्ट हुआ तो बचपन की याद और रामशरण के स्नेह ने मन की द्रवित कर दिया अपनों की बहुत याद आई| तो सोचा तुम से मिल लू  बहुत लोगों से तुम्हारा पता निकालने की कोशिश की तब किसी ने  मनोज से संपर्क कराया|  तुमसे मिलने की बहुत इच्छा थी इसलिए बुला लिया यदि तुम्हें बुरा लगा हो तो मैं क्षमा प्रार्थी हूं|”
“ नही नही ऐसी कोइ बात नही है| आप मेरे लिए आदरणीय हो| पिता जी आपके मित्र थे लेकिन उन्होंने कभी मुझे बताया नही|” जवाब में वो बस मुस्कुरा दिए| मैं अपने अहम से किसी की भावनाओं का अपमान नहीं करना चाहता था|
बाबा चाचाजी की परेशानी कब खत्म हो जाएगी, हमारी चाची जी ठीक तो हो जाएंगे ना?”
बेटी परेशानी कब समाप्त होगी यह तो मैं नहीं बता सकता| किन्तु  हर समस्या का हल उस समस्या की जड में होता है | जहां से वे शुरू हुई है| मतलब ममता की बीमारी है| उसके पुत्र के प्रति उसका प्रेम है | पुत्र वियोग को व सह ना सकी इसी कारण उसकी यह दशा हुई है|”
मैं अभी भी नहीं समझी बाबा|”
बाबा के चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट    |
समय आने दो सब कुछ अपने आप समझ में आ जाएगा| महेश जी एक विनती मानोगे|”
“हाँ हाँ, कहिए न|”

जाने से पहले इस मंदिर में प्रतिष्टित श्री भगवान को सच्चे मन से एक बार प्रणाम जरूर कर लेना|”
लेकिन वह तो पत्थर है|” मैंने व्यंगपूर्ण हंसी के साथ कहा|
कुछ क्षण के लिए अपना अहम और अपने  ज्ञान का त्याग करो और प्रणाम कर लो| मेरी हाथ जोड़कर प्रार्थना है|” उन्होंने अपने दोनों हाथ मेरे सम्मुख जोड़े|
नहीं नहीं, आप मुझसे बहुत बड़े हो मेरे पिता के समान हो| आप हाथ मत जोड़ो मैंने अपने पिता के कहने पर भी बहुत दिन तक इस पत्थर को भगवान माना है| आज एक बार फिर|”
सही, सचमुच मेरे ऊपर तुम्हारा बहुत बड़ा एहसान होगा|”
आप मुझे शर्मिंदा कर रहे हो|”
नहीं रामशरण के पुत्र होने के नाते तुम मुझे प्रिय हो| तुम बहुत छोटे थे| जब मैं यहां से चला गया था| जब वापस आया तब तुम यहां से जा चुके थे| बस एक बार तुम्हारी पत्नी से मुलाकात हुई थी| उस दिन शायद तुम्हारे पिता का श्राद्ध करने वो इस मंदिर में आई थी| उसका ह्रदय बहुत ही विशाल है| प्रेम और करुना का सागर है वो| भगवानके प्रति भी उसके मन में बहुत श्रध्दा है|”
“अगर ऐसा है तो फिर आपका भगवान उसके साथ ऐसा क्यों कर रहा है|” मैंने उन्हें बीच में टोक कर ही अपना सवाल दाग दिया|
कैसा|
वही जो आज उसकी दशा है|
बेटा ये तो संसार का नियम है| यहाँ हर किसी को दुःख तो देखने ही पड़ते है| ये सब तो हमारे कर्मो का फल है| स्वय भगवान विष्णु भी इस नियम को नही तोड़ पाए सारा संसार जानता है| की श्री राम ने कितने कष्ट सहे थे|”
किन्तु ममता तो सदैव भगवान की पूजा में लगी रहती थी|
भगवान की प्रार्थना से मन स्वच्छ एवं निर्मल होता है| इसमें कोइ दोराय नही किन्तु इसका ये कतई अर्थ नही है| की आप ने कोइ पाप नही किया| प्रार्थना आपके कष्टों को कम कर सकती है समाप्त नही उनका परिणाम तो आपको भोगना ही पड़ेगा|”
किन्तु बाबा|
“चले चाचा जी|” मैं प्रश्न पूछना चाहता था| लेकिन नेहा ने मुझे रोक दिया जैसे कोइ माँ अपने बेटे को डांट रही हो|
भगवान पर ना सही मुझ पर विश्वास करो| जल्दी ही उस परमात्मा की कृपा से तुम्हारे दुख दूर होंगे|” मैं केवल एक मुस्कुराहट के आलावा कुछ न कह सका| क्योकि मैं जनता था| की भगवान कुछ नही कर सकता केवल इस मंदिर में रहने के अलावा| मैंने उन  स्वामी जी के चरणों को स्पर्श किया और वहां से चल दिया| मैंने उस इंसान के चरणों को क्यों स्पर्श किया? मैं नही जानता शायद ये मेरे पिता जी दुआर दिए गए संस्कार थे|
नेहा मेरा हाथ पकड़ कर और भगवान की मूरत के सामने ले गयी ठीक वैसे ही जैसे मेरी माँ बचपन में मुझे ले जाया करती थी| वहाँ पहुंचकर उसने अपनी आंखों से इशारा किया और मैंने अपने दोनों हाथों उस मूर्ति के आगे जोड़ लिए|
वापसी में जो मैंने पूछा|
वैसे यहां लाने का मकसद क्या था|”
वो मुस्कुराई|
भगवान की मूर्ति के समक्ष हाथ जुड़वाना| जब माँ होश में आएगी तो मैं उनसे कह सकुंगी की देखो जो काम आप न कर पायी मैंने कर दिखाया |”
अच्छा चाचा जी क्या माँ ने आप से कभी नही कहा की आप भगवान के सामने हाथ जोड़ो|
“एक बार ममता ने मुझसे पूछा था की आप मुझसे कितना प्रेम करते हो| मैंने कहा बहुत अच्छा तो जो मैं काम आप से कहू आप करोगे| हम्म बताओ क्या करना है|
आज से आप भगवान को मानना शरू कर दो| नही कभी नही इसका मतलब आप मुझे प्यार नही करते अब इसमें प्यार कहाँ से आ गया| अच्छा तो बताओ तुम मुझसे प्यार करती हो बिलकुल और तुम्हारे लिए मैं भगवान की मानना भी छोड़ सकती हूँ| मैं अवाक से उसके मुह को देखता रहा|” मैंने एक लम्बी साँस ली|
मेरे कहने से पहले ही वो समझ गयी थी| की मैं क्या कहना चाहता हूँ|” अचानक ममता की वो मनमोहिनी सुरत मेरी नज़रों के सामने आने लगी|
तो तुम्हे क्या लगता है की मेरे हाथ जोड़ने से वो  ठीक हो जाएगी|” मैंने अपने आप को सँभालते हुए नेहा से सवाल किया|
जी हो सकता है| ये मेरा अंधविश्वास हो, पर आप देखना वो जरूर ठीक हो जायेंगी|”
उस लड़की के विश्वास को देख मैं चकित रह गया| ममता जब भी भगवान की कोई भी बात करती थी तो दर्शनशास्त्र के गूढ़ रहस्यों के बारे में बात करती थी| एक बार मैंने उससे पूछा था|
क्या वाकई में भगवान तुम्हारे दुख दूर कर देंगे|”
भगवान किसी के दुख दूर नहीं करता बस वो तो दुख सहने की शक्ति दे देता है|” ममता के जवाब दिया|
लेकिन इस लड़की को तो विश्वास है| भगवान दुख दूर कर देंगे| मनुष्य भी कितना मुर्ख है|
नेहा क्या तुम बचपन से ही डरपोक हो या फिर बाद में ऐसा हुआ|
किसने कहा मैं डरपोक हूँ|
अक्सर भगवान को वो ही लोग मानते है जोकि डरपोक होते है|
बिलकुल गलत भगवान को वो लोग मानते है| जिन्हें प्यार की कीमत का एहसास होता है| क्योकि भगवान डर के एहसास का नही बल्कि प्रेम के एहसास का नाम है|

इस बात को कोई एक महीना बीत गया| एक दिन नेहा मेरे पास भागती हुई आती है|
“चाचा जी जल्दी चलो|”
“ क्या हुआ मैं उसे इस तरह देख कर डर गया|”
“ आप जल्दी मेरे साथ चलो|”
“हम दोनों उसके घर पहुचे| देखा तो रवि चल रहा था|”
“नेहा ये कोन सा तरीका है| तुमने तो मुझे डरा ही दिया था”
“sorry, चाचा जी पर मैं अपनी ख़ुशी को रोक नही पाई|”

अब मेरा समय रवि के साथ खेलने में बीतने लगा|  उसके सहारे मेरा जीवन व्यतीत हो रहा था| रवि ने जैसे मेरे सरे गमो पर मरहम लगा दिया था| एक दिन मैं रवि के साथ ममता के कमरे में खेल रहा था | अक्सर मैं और रवि इस कमरे में खेलते थे| रवि बार बार ममता के पास जाता था| उसे उठाने के कोशिश करता था| उस दिन मुझे अचानक किसी काम से मुझे दूसरे कमरे में जाना पड़ा जब मैं कमरे में लौटा तो रवि ममता के पास खड़ा था| उसने अपने नन्हें-नन्हें हाथों से ममता के हाथ  को पकड़ा हुआ था| और अम्मा अम्मा जैसा कोइ शब्द मुह से निकल रहा था| मैं आश्चर्यचकित हो गया| ममता की आँख से आंसू गिर रहे थे| इतने सालो बाद मैंने पहली बार ऐसा देखा था| मेरा शरीर निढाल सा होने लगा था| मस्तिष्क शून्य हो गया था| प्रसन्नता का वेग ह्रदय को रोमांचित कर रहा था|
तभी नेहा वहाँ आ गयी| उसने जब ये द्रश्य देखा वो ख़ुशी से पागल हो गयी|
“रवि ने स्नेह भरी नज़रों से नेहा की और देखा और अम्मा अम्मा कह कर ममता की ऊँगली को पकड़ कर खीचने लगा जैसी कह रहा हो ये उठ नही रही है|”    
पापा माँ नेहा से मुंह से आवाज़ निकली|
लेकिन मैं तो किसी और ही लोक में था| शुन्यता ने मुझे घेर रखा था| नेहा कमरे से निकल कर मनोज को बुला लायी| फिर उन्होंने डॉ को बुलाया | मैं बस ममता को ही देखे जा रहा था| मुझे बिलकुल भी विश्वास नही था की ममता कभी ठीक भी हो पायेगी|

ये ममता का प्रेम ही था| जिसके आगे उसके भगवान को भी झुकना पड़ा और रवि को एक नए रूप में वापस भेजना पड़ा | मेरे बाबु जी कहते थे| की प्रेम ऐसी शक्ति है| जिसके आगे भगवान बेबस हो जाते है| और ये तो एक माँ का प्रेम था इसके आगे कैसे न महाशक्ति भी झुक जाती|  वाकई में वो बहुत ज्ञानी थे| पता नही मुझसा मुर्ख उनका पुत्र कैसे बन गया| आज उनकी बहुत याद आ रही है| खास कर उनके साथ बीतने वाले संध्या के वो पल जब मैं उनके कंधे पर सिर रख कर लेता रहता था| और उनके साथ गायत्री मन्त्र का उच्च्चारण करता था| आज बरसो बाद अचानक उनकी आवाज़ मेरे कानो में गुजने रही थी|
|| ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्यः धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात ||