Monday, December 28, 2015

प्रायश्चित

प्रायश्चित

जिन्दगी की परेशानिया कम ही नहीं  हो रही है, या यूँ कह सकते है की मैं उन्हें कम ही नहीं होने दे रहा । जो व्यक्ति परेशानियो के ही बीच रहना चाहता हो उसकी परेशानियो को कम भी कौन  कर सकता है । वो ही हाल मेरा भी है। अपनी समस्यों के समाधान को खोजता हुआ मैं हर शाम की तरह घर पहुंचा, घर की बेल बजाई लेकिन आज दरवाजा मेरी बीवी ने नहीं खोला और जिसने खोला उन्हें देखने की मुझे न तो कोई इच्छा थी न ही कोई उम्मीद !
मैं उनके पैर छु कर आगे बढ़ गया। अपने बेडरूम में पहुंचा ही था की निशा पानी लेकर आ गयी।
"ये कब आये ।"
"कौन।"
मैंने निशा की ओर अजीब सी नज़रों से देखा वो समझ गयी की अभी मैं किसी भी मजाक के मूड में नहीं हूँ।
"अच्छा बाबूजी।"
"1 बजे आये थे ।"
"किस काम से आये है ।"
मुझे क्या पता । निशा ने संछिप्त सा जवाब दिया और वापस जाने के लिए मुड़ी।
"ये तो पता होगा कितने दिन रहेंगे।"
"नहीं पता,तुम खुद क्यो नही पूछ लेते।" कह कर वो सीधे किचेन की ओर चली गयी।
और मैं अपने चहरे पर question marks की एक पोटली लिए खड़ा रहा ???????
मैंने ड्राइंग रूम की और झांक कर देखा । वो इन्सान मेरे बेटे के साथ खूब हस हस कर बाते कर रहा है । अचानक मुझे ऐसे लगा जैसे कोई मेरी सम्पति पर डाका डालने की कोशिश कर रहा हो।

मैं मन ही मन सोचने लगा एक तो ऑफिस की ये परेशानी और दूसरा ये परेशानियो का फिक्स डिपाजिट सारे के सारे मेरे ही खाते में  क्रेडिट होने थे ।
"सुनो आप फ्रेश हो लो मैं खाना लगाती हूँ।" निशा किसी जल्दबाजी में मेरे पास आई।
"मेरे लिए खाना यही ले आना ।"
"क्यों आज यहाँ क्यों ।"
"मैं चुप रहा ।"
"ठीक हैं।"
कह कर वो चली गयी।
आखिर वो यहाँ इतने सालो के बाद क्यों आये है। हमारे बीच सवांद बंद हुए काफी अरसा बीत चूका था । हालाँकि मुझे कमल से उनकी खबर मिलती रहती थी। वो बात अलग है की मुझे उनकी किसी भी खबर में कोई दिलचस्पी नहीं थी।

अचानक की पुरानी यादें फिर से मन को कचोटने लगी। जिन यादों से मैं पीछा छुड़ाने के लिए मैं अँधा बन दौड़ रहा हूँ , वो आज फिर मेरे सामने आकर खड़ी होगई।
"बाबु जी बुला रहे है।"
"कौन" मैं अनजान बना ।
"मैं नहीं आ रहा , कह दो मेरी तबियत ख़राब हैं।"
"ठीक है" कह कर वो चली गयी।
"मैं जानता हूँ उसकी तबियत क्यों ख़राब है। वो नहीं आएगा।"
drawingroom से बाबूजी की आवाज़ आ रही थी
एक छोटी सी मुस्कान मेरे चेहरे पर फ़ैल गयी।
"ये लो खाना खा लो।"
"तुम उनसे इतना दूर क्यों रहते हो ।"
उसने मुझसे खाना खाते हुए पूछा
"नहीं ऐसा कुछभी नहीं है"
"नहीं ,नहीं मैंने कई बार नोटिस किया है प्लीज बताओ ना।"
औरतों में ये बहुत बड़ी कमी होती है वो अपनी curosity पर काबू नही रख पाती।
"अरे कहा न ऐसा कुछ भी नही है"
"प्लीज ...." उसने बड़े प्यार से पूछा, उसके प्यार के लिए तो म सब कुछ छोड़ सकता हू। बुत अभी इस सवाल का जवाब मैं उसे नही दे सकता।
"फिर कभी बताऊंगा आज नहीं।"
"आप हर बार ये ही कह कर बात टाल जाते हैं|"
"अरे कह तो दिया वक़्त आने पे सब बता दूंगा।"

"क्यों अभी क्या दिक्कत है, अभी बताओ।" वो ज़िद पर उतार आई उसकी ये ज़िद बड़ी अछि लगती है। बिल्कुल बच्चों जैसा बर्ताव। उसकी ये ही कुछ बातें मुझे उससे प्यार करने पर मजबूर करती रही है।"
"खाना खाऊ या छोड़ दूं।" मैंने उसे झिड़क दिया क्योकि इस वक़्त मेरा दिमाग दिल की प्रिय बातों को भी सुनने को तैयार नही था।

"तुमसे तो कुछ भी पूछना बेकार है।"
इतना कह कर वह चली गयी।

ये एक ऐसा ब्रह्मास्त्र है जो पुरुषों को हमेशा बचा लेता है, स्त्रिओं से ये कभी खाली नहीं जाता, क्योंकि अच्छी पत्नी कभी भी अपने पति को भूखा नही रहने देगी। परन्तु इसके परिणाम बहुत ही भयंकर होते है और हुआ भी वही।
खाना खाने के बाद मैं लेट गया और दिमाग कम्पनी के पैसों के बारे में सोचने लगा ।
तभी आगमन हुआ श्रीमती जी का, चेहरा सुजा हुआ, गुस्से से लाल ,ना जाने क्यों जब भी मैं निशा को इस रूप में देखता हूँ । तो मुझे हंसी आने लगती हैं। लेकिन मैं सहनशीलता का परिचय देते हुए अपनी उस हंसी को रोक लेता हूँ उसने तकिये को उठा कर जोर से बेड पर पटका ।
"क्या हुआ।" मैंने साहस का परिचय देते हुए पूछा
"आपसे मतलब।"
"अरे कोई तो बात हुई होगी ।"
"कोई बात नहीं हुई।"
"विशु नही आया ।"
"वो आज बाबु जी के साथ ही सोयेगा।"
"ठीक हैं ।"
मैंने भी बात को ज्यादा बढ़ाना उचित नहीं समझा।

'बाबूजी' इस शब्द ने मेरे विचारों को पुन: u turn दे दिया और मैं पुन: उन विचारों के समंदर में डूबने लगा जिससे निकलने मे मुझे बरसों लग गए।

मेरे बचपन की हर शाम एक अनजाने डर के साये में गुजरती थी।
शाम को जब मेरे सब दोस्त खेल छोड़ कर इस खुशी से घर लौटते थे की उनके बाबू जी अब घर आएंगे मैं डरा शमा सा घर जाता था । मेरी और मेरी माँ की हर शाम एक डर चादर के साथ आती थी। मेरे बचपन की हर शाम दर्द से भरी हुई बीतती थी। एक डर की चादर शाम होते ही मेरी आत्मा को ढाँप लेती थी क्योंकि शाम पर अधिकार होता था। मेरे बाबू जी का मैं उस वक़्त ये नहीं जान पाया की शाम को ऐसा क्या हो जाता था, की मुझे उनमे इंसानियत नही दिखाई देती थी| उनके मुह से सिवाय गललियों के कुछ भी नहीं निकलता था और बिना गलती के भी माँ को सज़ा मिलती थी। जो छोटी मोटी नहीं होती थी हर माँ अपने बच्चों के लिए भगवान होती है उसकी पावन  गोद बच्चों के हर दुख का मरहम होती है मेरी माँ भी स्नेह का सागर थी जिसकी गोद मे सिर रख कर मैं अपने सब गुम भूल जाता था। लेकिन मेरा मासूम मन ये कभी भी नहीं जान पाया की मेरी माँ का ऐसा कोन सा अपराध था। जिसके लिए उन्हे हर रोज़ प्रताड़ित होना पड़ता था, कभी सब्जी मे नमक कम है , कभी नमक ज्यादा क्यो है, रोटी जाली क्यों है या रोटी कच्ची क्यों या मैं बाहर खेलता क्यों पाया गया अगर  कभी कुछ नही मिला तो पुरानी गलतियों को दोहरा कर उन्हे जानवरों की तरह पीटा जाता था। हो सकता है ये सब गलतियाँ सज़ा के लायक हो मेरे बाबू जी की नज़र मे लेकिन ये सब इतने बड़े आपराध नही हो सकते जिनके लिए किसी इंसान का हाथ ही तोड़ दिया जाए और मेरी अम्मा भी सच्ची भारतीय नारी किसी ने अगर पूछा भी तो की ये चोट कैसे लगी तो माँ का जवाब
"भइसिया ने मार दिया "
बेचारी भोली थी वास्तव मे सब को पता था उस भैंस का नाम।
वैसे उनके इस जवाब मे एक डर भी छिपा था की कोई उनके पति को गलत न समझे जब कभी मैं उनसे कहता “अम्मा बाबू जी क्यो तुमको मारते है बाबू जी गंदे है” । वो कहती  "न बेटा तोहार बाबूजी बहुत अच्छे है हमार ही गलती थी" आज तक ये समझ मे नही आया क्यो हमेशा माँ ही गलत हिति थी।
लेकिन बाबू जी से मेरी दूरी का असली कारण तो .................
ये ही सोचते सोचते नजाने कब मैं नींद की गोद मे सो गया पता ही नही चला|
मेरी माँ अपने हाथों से मुझे खाना खिला रही थी हर तरफ खुशी ही खुशी थी की तभी "डैडी उठो" विशु की मिट्ठी आवाज ने मेरा सपना तोड़ दिया।
विशु  मेरे दिल का टुकड़ा जीवन मे मुझे सबसे जादा खुशी उसके जन्म पे ही हुई थी। संतान इंसान को मिला भगवान का सबसे बड़ा गिफ्ट है। पता नही कैसे लोग अपने फूल जैसे बच्चों पर हाथ उठा देते है। एक उसकी हंसी ही तो है जो मेरे सारे दुखों को पल भर मे हर लेती हैं
"अले मेला राजा बेटा उठ गया।" मैंने उसकी तोतली आवाज़ मे पूछा। और उसे बाहों मे कस लिया उसने भी अपने छोटे छोटे हातों से मेरी गर्दन को दबोच लिया। फिर हुआ आगमन मेरी धर्मपत्नी का।
“ये लो चाय पी लो।"
"ओहो लगता है गुस्से की परत पिघल गयी"
"वो सब छोड़ो, ये बताओ की आपने मुझे अपनी प्रोब्लेम के बारे मे क्यो नही बताया।"
"problem कोनसी problem” मैंने अनजान बनने की कोसिश की
"अब बनो मत मुझे बाबूजी ने सब बता दिया|"
“अरे क्या बता दिया बाबूजी ने साफ साफ बताओं पहेली क्यो बुझा रही हो “ मैंने अपने तेवर बदले
“येही की तुम्हारा कोई client तुम्हारी कंपनी के 5 लाख रुपए ले कर भाग गया और वो पैसा अगर तुमने जमा नही किया तो कंपनी तुम्हारे उपर गबन का केस डाल देगी”

“क्या बकवास कर रही हो ऐसा कुछ भी नहीं है”
“ऐसा ही है बाबूजी मुझसे झूठ क्यो बोलेंगे, वो सिर्फ इसी लिए आए है यहा, तुम्हारी मदद करने” 
‘बहू’ बाहर से बाबूजी की आवाज़ आई
“जी बाबूजी कह कर निशा बाहर की और गयी”
ये सब बाबू जी को कैसे पता चला मैं सोच मे पड़ गया कौन है जो उन्हे ये सब बता सकता है
“कमल” अचानक मेरे मुह से निकला
वो ही एक कमीना है जो ये काम कर सकता है 
"कमल" मेरे बचपन का दोस्त था। हम दोनों ने एक साथ ही पढाई शरू की थी । मेरे हर राज का राजदार हर सुख दुःख का साथी।
जब मेरी शहर में नौकरी लगी थी तब उसके ही भरोसे मैं माँ को गांव छोड़ के आया था।
केवल दोस्ती ही ऐसा रिश्ता है जिसे मनुष्य अपने आप चुनता है। और मेरा तो ये मानना है की अच्छे दोस्त केवल किस्मत वालो को ही मिलते है और इस मामले में मै बहुत किस्मत वाला हूँ। कमल अच्छी तरह से जनता था की मैं उस घटना के बाद बाबूजी से कोई संपर्क नही रखना चाहता ।फिर भी उसने ये सब उन्हें क्यों बता दिया।
"दोस्त वाकई में कमीने होते है।"
"सुनो बाबू जी वापस गांव जा रहे है आप उन्हें रोको ना" देवी जी का एक बार बार फिर शयनकक्ष में आगमन हुआ।
"जाना चाहते है तो जाने दो मैं क्यों रोकू, और वैसे भी जाने वालो को कौन रोक सका है।"
"अरे यार हद है तुम उनसे इतनी नफरत क्यों करते हो"
मैं चुप रहा।
"डैडी दादू को रोको न वो जा रहे है प्लीज"
एक और आया दादु का चमचा मुझसे कोई
कोई रेसपोंस न पा कर दोनों  एक दूसरे को देखने लगे
"ok उन्हें बस स्टैंड तक तो छोड़ के आ सकते हो"
" बाहर से रिक्शा मिल जायेगी, बैठो बसस्टैंड रेलवे स्टेशन जहां  जाना है जाओ कौन मना करता है।"
"बस यार बहुत हो गया चलो उठो ऐसे अच्छा नही लगता"
निशा ने मुझे जबरदस्ती उठाया
मैं बुझे मन से उठा bike स्टार्ट कर दी और हम दोनों बस स्टैंड की और चल दिए। छोटी छोटी गलियों से होती हुई bike अपनी मंज़िल की और बढ़ रही थी। हम दोनों चुपचाप बैठे थे।पता नही आखिरी बार कब हम दोनों के बीच कोई संवाद हुआ था।
जैसे जैसे मैं बड़ा होता गया मैंने बाबूजी की हरकतों का विरोध करना शरू कर दिया।कभी कभी हम दोनों के बीच बहुतबड़ी लड़ाई हो जाती पर मैं अम्मा को बचाने में कामयाब हो जाता।
जब वो अपने मंसूबो में कामयाब नही हो पाते तो फिर मुझे गलियां सुनते।
"हरामखोर तू अपने बाप की बेइज़्ज़ती करता है तुझे शर्म।नही आती"
इस बात को वो अपनी ईगो पर ले जाते और मौका मिलते ही माँ से बदला लेते।
जब मेरी नौकरी लगी तो मैं बहुत खुश हुआ की अब मै माँ को।इस जंजाल से बाहर निकल लुगा। चूंकि शहर गांव से बहुत दूर था इसलिए मुझे भी शहर में ही रहना था।लेकिन माँ ने मेरे साथ शहर जाने से मना कर दिया। मेरे बहुत मनाने के बाद भी वो मेरे साथ शहर आने को तैयार नही हुई।और मुझे उन्होंने मुझे कसम दे दि जिसके कारण मुझे बिना उनके ही शहर आना पड़ा।
जिस दिन मुझे शहर आना था उनकी आंखो से मानो इन्द्र देव स्वयं बरस रहे थे।मेरा मंन टूट चुका था।
"मैं शहर नही जाना चाहता ।" मैंने अम्मा से कहा।
"नही बेटा तु जरूर जा, अगर तु नही गया तो मैं अपने आप को माफ़ नही कर पाउंगी"
"लेकिन आप"
"मेरी चिंता मत कर बेटा, मैं ठीक हु।"
"कमल माँ का ख्याल रखना"
मैं गांव की यादों के साथ वहा से निकल लिया। जब भी मुझे समय मिलता मैं  गांव जाता और माँ से मिलता वहां कुछ भी नही बदला था।
और एक दिन वही हो गया जिसका  भय मुझे हमेशा डरता रहता था।  उस दिन को मैं ताउम्र नही भुला सकता। ऑफिस का फोन बजा वो मेरे लिए था। वो कमल की अवाज थी ।
"भाई तु जल्दी गांव आजा आम्मा की तबियत बहुत खराब है।"
तबियत खराब होने का कारण मैं जानता था।मैं बिना समय गंवाए गांव पहुंचा।माँ खाट पर लेटी हुई थी और दर्द से करहा रही थी।
"अम्मा अम्मा"
"अरे मेरा लाल आ गया"
हर माँ प्रेम का अथाह सागर होती है। सृष्टि मे विधमान सभी शक्तिओं मे प्रेम सबसे बड़ी शक्ति है और इसी शक्ति की उपस्थिति के कारण माँ का स्थान सर्वश्रेष्ठ है।
अपने दर्द को छिपा कर वो खाट से उठने की कोशिस करने लगी।
"न अम्मा आप लेटी रहो, क्या हुआ ।"
"कुछ नही, मैं ठीक हूँ।"
"राजीव ताइ को शहर मे किसी डॉ के पास ले जाना पड़ेगा इनकी तबियत बहुत खराब है मैं जानता हूँ"
कमल ने घर आते हुए कहा।
"हां चलो मैं शहर से गाड़ी लाया हूँ।"
"नही बेटा हम नही जा सकते तेरे बाबूजी आने वाले है उनके खाने का टाईम हो गया है।"
"मैं माँ से कह दूंगा वो ताउ जी को खाना दे देगी आप चिंता मत करो ।" कमल ने माँ को समझाया।
हम दोनो माँ को।लेकर शहर पहुच गए।
माँ तब तक बेहोश ही चुकी थी। डॉक्टर ने बताया की उनकी कोई पसली टूट चुकी थी और बहुत सी अंदरुनी चोटे थी जो काफी पुरानी थी।
"ताइ एक हफ्ते से खाट पर थी।" कमल ने कहा
"बेवकूफ और तु मुझे आज बता रहा है।" मैंने क्रोधित स्वर मे कमल से पूछा।
"अरे यार मैं आज ही गांव आया था।"
"रोक ले यही से तो बस मिलती है, अब गांव को जाने वाले रास्ते को भी भूल गया।"
बाबूजी की आवाज़ ने मुझे पुनः वर्तमान मे ला दिया।
ची ची ची ची ची..............
ब्रेक के साथ बाइक रुक गयी।
"तुमने पूछा नही की मैं यहाँ क्यो आया था, इतने सालो के बाद"
बाबूजी ने bike से उतरते हुए मुझसे पूछा।
"आपकी बस सामने खड़ी है।" कहते हुए मैंने bike का गेअर डाला।
"सुन ये रख ले" उन्होंने एक कागज़ का लिफाफा मेरी और बढ़ाते हुए कहा।

"ये क्या है" मैंने उस लिफाफे को अज़ीब सि नज़रों से देखते हुए पूछा।
"ये पांच लाख का चेक है मुझे कमल ने सब कुछ बता दिया है।, मैं अपने बेटे को जेल जाते नही देख सकता।"
"मेरा आप से जो भी रिश्ता था वो मेरी माँ की वजह से था उनके साथ ही ये रिश्ता भी चला गया, और रही मेरी परेशानियों की बात अगर आपकी मदद से मुझे ज़िन्दगी भी मिल रही होगी तो मैं उसे भी ठुकरा दूंगा।"
"लेकिन बेटा प्रायश्चित भी तो कुछ होता है" उनकी आवाज़ मे याचना का स्वर था। जो मैंने आज तक उनकी वाणी मे आज से पहले कभी महसूस नही किया।
"आपका प्रायश्चित मेरी माँ को तो वापस नही ल सकता"
मैंने bike का गेर डाला और आगे बढ़ गया
साइड मिरर सेदिख रहा था वो अभी भी वही खड़े थे और उनकी आँखे मुझे ही देख रही थी।
फिर वही दिन मेरी आँखों के सामने आ गया डॉक्टरों ने मेरी माँ को बचाने की बहुत कोशिश की लेकिन मेरी माँ के कमजोर शरीर ने उनका साथ नही दिया।
bike तेजी से उनसे दूर ज रही थी। मेरी आँखों से गिरते आंसू हवा मे उड़ते जा रहे थे।
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